शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

आसमां पर थूकने से खुद अपनी ही शक्ल गंदी होती है

जब मैं छोटा था तब दादा-दादी से ये बातें सुनता था. वे कहते थे कि आसमां की ओर थूकने से गंदगी पलटकर अपने ही चेहरे पर पड़ती है. काफी दिनों से ऐसा कोई इंसीडेंट सामने नहीं आया था सो ये बात दिमाग के किसी कोने में ढेर सारी बातों के नीचे दब सी गई थीं. अब एक ताजा वाकये ने एक बार फिर इसे सबसे ऊपर ला दिया है. इसे देखकर लगा कि दूसरों को नाकाम बताकर अपनी नाकामी को छिपाने का काम सिर्फ चाल या स्लम में रहने वाले ही नहीं करते बल्कि इसमें ऊंचे-ऊंचे महलों में रहने वाले और कईयों के रोल मॉडल भी शामिल होते हैं. इस बीमारी का सबसे लेटेस्ट शिकार हुए हैं ऑस्ट्रेलियाई टेस्ट क्रिकेट टीम के कप्तान रिकी पोंटिंग. लगता है बल्ले की नाकामी पोंटिंग पर कुछ ज्यादा ही भारी पड़ रही है. यही कारण है कि इस भार के नीचे दबे पोंटिंग अब सचिन तेंदुलकर जैसे क्रिकेट के पुरोधा की परफॉर्मेंस पर कमेंट की कटिया मारकर ऊपर उठना चाहते हैं. पोंटिंग की हालिया परफॉर्मेंस पर जब कभी खुद उनके ही खैरकदम रहने वालों ने निशाना साधना शुरू किया तो उन्होंने मास्टर ब्लास्टर पर कमेंट करके अपनी नाकामी को छिपाने की कोशिश तो की ही, साथ ही खुद को मास्टर की बराबरी में खड़ा भी करना चाहा. पंटर शायद यह भूल गए हैं कि महानता का दर्जा बड़बोलेपन से नहीं बल्कि प्रदर्शन से पाया जाता है. मैं ये बातें सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा हूं क्योंकि मैं इंडियन हूं. मेरे द्वारा इस तरह की बातें करना इसलिए भी जायज है कि सचिन का व्यक्तित्व आज देश और रीजन की सीमा से काफी ऊपर है. हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में उनके फैंस हैं. खुद विश्व के सर्वकालिक महान बैट्समैन सर डॉन ब्रैडमैन भी सचिन की तारीफ में कसीदे पढ़े बिना नहीं रह सके थे. ऐसे में पोंटिंग का ये बयान बचकाना ही नहीं बल्कि उनकी सोच के छोटेपन को भी दर्शाता है.

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

खाली रहने से अच्छा है चलो इंसाफ किया जाए

मैडम काफी समय से खाली चल रहीं थीं. इधर रियलिटी शो वाले प्रोड्यूसर्स ने भी उन्हें भाव देना कम कर दिया था. एक समय था जब अपने लटके-झटकों और कारनामों की वजह से उनके दरवाजे पर बड़े-बड़े शोज के जनक उनकी हां में दिन-रात एक किए रहते थे लेकिन जब से मैडम ने कुछ दिनों के लिए कंट्रोवर्सीज से दूर रहने का फैसला किया, वे छू मंतर हो गए. अब लाइम लाइट में रहने की तो मैडम को तलब सी है. चमक थोड़ी सी कम हुई और मीडिया पर्संस के कैमरे दूसरी ओर घूमे तो इनसे बर्दाश्त नहीं होता. कुछ नया और धमाकेदार करना था सो चल दीं इंसाफ की देवी बनने. भले ही अपनी लाइफ में ये इंसाफ न कर सकी हों लेकिन दूसरों की लाइफ का इंसाफ करने का जिम्मा तो उन्होंने उठा ही लिया. लोगों ने पूछा कानून की नॉलेज के बगैर कैसे कर पाएंगी, तो बोलीं इसके लिए दिमाग और दिल की जरूरत होती है. दिमाग की बात तो ठीक है लेकिन मैडम के पास दिल भी है ये जानकर लोगों को भारी हैरत हुई. बिन ब्याहे प्रेमी का दिल तोडऩे, अर्ध ब्याहे मंगेतर को रुसवा करने और सरेआम अपने परिवार को छोडऩे वाले के पास दिल भी हो सकता है, ये सोचना बड़ों-बड़ों के वश में नहीं था. अब मैडम हों और चाटेबाजी न हो, ये कैसे हो सकता है. शो पूरी तरह से शुरू भी नहीं हो सका था और मारपीट भी शुरू हो गई. यहां तो बात बनाई जानी थी लेकिन हुआ कुछ उल्टा. वाकयुद्ध तक सीमित रहे पति-पत्नियों के बीच चाटे और थप्पड़ भी चलने लगे. दर्शकों ने ये देखा तो उन्हें आगे की लड़ाई और भी रोमांचक होने की उम्मीद जगी. बस देखते ही देखते शो की टीआरपी भी बढ़ गई. अब किसी को इंसाफ मिले या न मिले, मैडम की दुकान तो चल निकली थी.
रियली जाग गई आशाएंक्रिकेट, सिनेमा और क्राइम इन दिनों इन 'इन थ्री सीÓ से जुड़ी खबरों का ही जलवा है. फिर चाहे वह कोई दबंग टाइप न्यूज चैनल हो या फिर छुटभैया, हर जगह मैक्सिमम टाइम इन्हीं से रिलेटेड खबरें चलायमान होती हैं. क्रिकेट से छूटे तो क्राइम और क्राइम से आगे बढ़े तो सिनेमा, इसके अलावा इन चैनल्स पर कुछ दिख जाए तो इसे अपनी खुशकिस्मती ही समझिए. आज मैं इन्हीं 'सीÓ में से एक सिनेमा की बात करने जा रहा हूं. जिस तरह की मूवीज इन दिनों ब्लॉकबस्टर वाली हिट लिस्ट में शुमार हो रही हैं उससे तो यही लगता है कि विशुद्ध मसाला फिल्मों का दौर फिर से लौट आया है. फिर चाहे उसमें बे सिर-पैर के एक्शन हों या फूहड़ गाने, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. एंटरटेनमेंट के लिए कुछ भी परोसेगा वाली मेंटैलिटी वाले निर्देशकों ने भी दर्शकों के इस टेस्ट को बखूबी पकड़ लिया है. यही कारण है कि दबंग और वांटेड जैसी मूवीज हिट होती हैं और बॉलीवुड के सबसे प्रतिभाशाली निर्देशकों में शुमार किए जाने वाले नागेश कुकुनूर की मूवी आशाएं बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर पड़ती है. दर्शकों को वह मूवी तो पसंद आती है जिसमें एक नायक सैकड़ों खलनायकों को एक साथ पीट-पीटकर अधमरा कर देता है. हालांकि उस मूवी को वह सिरे से नकार देते हैं जिसमें मौत के मुंह में खड़े लोगों के जीवन के दर्द और उनकी इच्छाओं को पूरा करके संतुष्टि पाने वाले नायक को दिखाया जाता है. समझ में नहीं आता कि आखिर ऐसा क्यों है? रियलास्टिक मूवीज का ये हश्र देखकर दुख तो होता ही है, साथ ही उन्हें फ्लॉप का तमगा दिलाने वाले दर्शकों की सोच पर तरस भी आता है.

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

चमचागिरी परमो धर्मः, सोच रहे होंगे मैंने शीर्षक क्यों चुना लेकिन क्या करूं दोस्तों जिधर देखता हूँ ऐसे ही लोगों की भीड़ नज़र आती है जिसने मुझे इसे चुनने पर मजबूर कर दिया। शुरुआत में जब कुछ चम्मच टाइप के लोगों को देखा तो लगा की इनसे बड़े चमचाकार का दर्शन फिर शायद किसी विशेष नक्षत्र में ही हो लेकिन जैसे जैसे आगे बड़ा एक से बढकर एक प्रतिभाएं सामने आयें। इनमे कुछ तो ऐसी थी जो सोते वक़्त या यु कहे तो हर पल सासटांग खड़े रहते थे। बॉस दिन को कहे रात तो सूरज को बेकार बल्ब कहने का अभियान चला दें। बॉस कहे तो उलटे खड़े हो जाएँ तो भी कोई संकोच न हो। बॉस कहे तो बीपों-बीपों कहते हुए गधे को बाप कहें। बात चली है तो एक ऐसे ही चम्माचाकर श्री श्री श्री एक हज़ार आठ की याद आती है। संयोगवश ऐसे तेजश्वी ओजस्वी महापुरुष का सानिध्य मुझे अपने पढाई के दौरान ही मिला लेकिन मैं अग्यानी उन्हें पहचान नहीं पाया। हालांकि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं और श्री श्री ने भी इसे कहावत को पूरी तरह से चरितार्थ किया। भले ही पढाई के दौरान बॉस न रहा हो लेकिन चम्मच धर्म का निर्वहन करना ही था सो बन गए गुरूजी के चम्मच। गुरूजी कहें 'मैं अमेरिका गया था तो श्री श्री चिल्लाएं 'हाँ सर क्लिंटन के बगल में आपको टीवी पर देखा था। गुरूजी भी खुश और चम्मच धर्म का पालन भी हो गया। गुरूजी का जन्मदिन एक महीने बाद हो तो श्री श्री एक महीने पहले ही जन्मदिन की पार्टी दे देते थे। जेब में पैसे न हो तो भीख मांगने से भी गुरेज नहीं। ......